जातिगत जनगणना आवश्यक क्यों है?
और नहीं है तो क्यों नहीं है? इस संबंध में मैं यह याद दिलाना चाहूंगा कि आजादी के बाद भी और पहले भी गांधी जी भगत सिंह जैसे लोग जो समाजवादी विचारधारा के थे बार बार यह कहते थे की आजादी साध्य नहीं है ,समाजिक व्यवस्था परिवर्तन का साधन है। हमें आजादी के लिए आजादी नहीं चाहिए हमें व्यवस्था परिवर्तन के लिए आजादी चाहिए। सवाल उठता है कि व्यवस्था परिवर्तन क्या है ?व्यवस्था परिवर्तन का मतलब होता है कि जो समाज में जातिगत ऊंच-नीच है जिसके कारण एक बड़ा वर्ग अशिक्षित भी है निर्धन भी है और सम्मान से,संसाधन के अवसर से वंचित भी है। उनको मुख्य धारा से जोड़ कर देश को कैसे समृद्धिशाली किया जा सकता है।
हमारे संविधान में साफ़ लिखा है कि बिना धर्म,जाति, लिंग के भेद के सबको राजनीतिक आर्थिक और धार्मिक और सामाजिक न्याय दिया जाएगा।
सवाल यह है किसी रोग का निदान किए बगैर उसका उपचार नहीं किया जा सकता तो हम को यह पता होना चाहिए सामाजिक रुप से आर्थिक रूप से और नौकरियों में और राजनीति में भागीदारी से बंचित रहने
के दृष्टि से कितने लोग अपनी जनसंख्या के अनुपात में संवैधानिक सुविधा प्राप्त करने की स्तिथि में नहीं हैं। इसके लिए जातीय गणना आवश्यक है
समाज में दो तरह के लोग हैं एक व्यवस्था परिवर्तन पक्ष में और एक यथा स्थिति बनाए रखना चाहते हैं। जो लोग यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं जातिगत जनगणना का विरोध कर रहे हैं। और जो चाहते हैं कि देश में यह अमीरी गरीबी की बढती खाई कम हो वे सब जातिगत जनगणना के पक्ष में हैं।
यह तो सर्वमान्य सत्य है कि भारत की सामाजिक संरचना जातिगत ऊंच नीच के कारण समाज का एक बड़ा वर्ग अन्याय का शिकार आज से नहीं, सदियों से होता रहा है। हमारे समाज में जातियों के पायदान बने हैं संविधान लागू होने के बाद भी जाति के नाम पर ऊंचे नीचे पायदान बदस्तूर क़ायम हैं। लोहिया जी का कथन था कि सामाजिक संरचना की खड़ी लकीर को पड़ी लकीर में बदलना है।
इस सामाजिक अन्याय के प्रतिकार के लिए भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया संविधान के नीति निदेशक तत्व में उल्लेखित सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन के उन्मूलन के लिए केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा कल्याणकारी उपायों की व्यवस्था करने की समय-समय पर सलाह दी गई है इसके बावजूद आरक्षित वर्गों का कोटा अभी तक बहुत सी नौकरियों में और संस्थानों में पूरा नहीं किया गया समय-समय पर अदालतों द्वारा आरक्षण के लाभ सिद्ध करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा उचित आंकड़े भी मांगे जाते रहे हैं। भारत में 1931 के बाद जनगणना के सही आंकड़े उपलब्ध न होने के कारण कई बार सुधार के प्रयास सफल नहीं हुए। 1931 की अंग्रेजों द्वारा की गए जातिगत जनगणना इसलिए अप्रासंगिक हो चुकी है उसके बाद देश का बंटवारा हुआ और आबादी की अदला बदली हुई। अभी उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव में ओबीसी की सही जनसंख्या की अनुपलब्धता के कारण
सुप्रीम कोर्ट ने उस पर रोक लगाकर उत्तर प्रदेश सरकार को सही संख्या उपलब्ध कराने का निर्देश दिया गया है। जांच के आधार पर सामाजिक भेदभाव एक सच्चाई है जो कल्याणकारी योजनाओं को बर्बाद करना चाहते जिससे संसाधनों बटवारे की गैरबराबरी का खुलासा होता है वे जातिगत जनगणना के विरोध में हैं। उन्हें डर है कि अगर पिछड़ों की संख्या वर्तमान के फ़र्जी आंकड़ों से अधिक निकले तो वे पिछड़े वर्ग आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाने की मांग कर सकते हैं। लोहिया जी की मांग 60%आरक्षण ओबीसी को दिए जाने की थी। (संसोपा ने बांधी गांठ पिछड़ा पावे सौ में साथ साठ) यह उनका नारा था। काका कालेलकर कमिशन ने पिछड़ों को 4o % आरक्षण की सिफारिश की थी। सरकारी दबाब और आंकड़ों के हवाले और ग़लत समीकरण से मण्डल कमीशन ने 27% आरक्षण दिया जाने की सिफारिश की थी
इस सिफारिश की रिपोर्ट भी ठंडे बस्ते में पड़ी रही। 1992 में प्रधानमन्त्री वीपी सिंह ने उसकी घोषणा की। यानी संविधान के आरक्षण के प्राविधान लागू होने के 42 साल बाद। उसको भी निष्क्रिय करने हेतु यथास्थिति वादियों ने मण्डल बनाम कमंडल विवाद खड़ा कर के उस को रोकने की भरपूर कोशिशें कीहैं।
यह रहस्य है, इसे समझने की जरूरत है कि भारत के संविधान में पिछड़ों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए जिस आरक्षण की व्यवस्था की गई थी और यह कहा गया था कि शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े जातियों की पहचान की जाए जिसके लिए एक नेशनल कमीशन भी बना राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग। और उस जमाने में 600 जातियों को पिछड़ों में शामिल किया गया और उनकी पहचान की गई कि सामाजिक और शैक्षिक रूप से कौन कितने पिछडे हैं इस पहचान करने की प्रक्रिया में भी हम लोगों ने अनुभव किया था की जातिगत संख्या का सही आंकड़ा पता होना बहुत जरूरी है। क्योंकि किसी हद तक जाति की संख्या भी निर्धारित करती है कि किस जाति का सामाजिक पिछड़ापन कितना है, या समाज में उनका क्या स्थान है। जो समाज की खड़ी रेखा है जो ऊपर उसके नीचे उसके नीचे इसको समानांतर करने के लिए लोहिया जी जो बात कहा करते थे कि खड़ी रेखा को पड़ी रेखा में बदलना है उनका आशय यही था कि सामजिक गैरबराबरी दूर की जाए
इसलिए पिछड़ी जातियों की संख्या जांच करना बहुत जरूरी है क्या हम इस सत्य को भुला सकते हैं वर्ग और वर्ण आधारित देश में गैर बराबरी के कारण सामाजिक रिश्ते भी असहज हो गए हैं। जब कभी सुधार की बात या कोशिश होती है और समाज में और राजनीति में ,नौकरियों में पिछड़ों की भागेदारी या सम्मान की बात आती है तब यथास्थितिवादी निहित स्वार्थ के कारण कुछ लोग असहज होकर ऐसे प्रयासों का विरोध करने लगते हैं। हर क्षेत्र में जातियों की चर्चा की जाती है चुनावी राजनीति में जोर से होती है और मीडिया के समाचार विश्लेषण में तमाम जातियों के आंकड़े पेश किए जाते हैं उनकी संख्या जानने का दावा किया जाता है बताने का दावा किया जाता है। जो प्राय: ग़लत होते हैं। क्या यह बात किसी से छुपी है कि हर राजनीतिक दल चुनाव में टिकट जाति की संख्या को ध्यान में रखकर बांटी जाती है
अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में जातियों की सही जनसंख्या की उपलब्धता का प्रश्न आया था। एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय आयोग ने भी माना था कि अपने देश के किसी किसी हिस्से में देखने में आता है कि कुछ नेता, संपादक ,सवर्ण के लोग कुछ जातियों की गिनती न कराने पर जोर देने लगते हैं उनके पास तर्क बहुत कम होते हैं वे कहते हैं सभी जातियों की गणना कराने से जातिवाद बढ़ जाएगा। कभी कहते हैं ऐसी घटना की जरूरत ही क्या है ऐसे में कोई हमें बताएं अपने देश में सुधार कैसे होगा। जब चुनाव आते हैं तब हर दल और नेता इस गणना का समर्थक होता है
कांग्रेस सरकार में मनमोहन सिंह और प्रणव मुखर्जी ने जाति जनगणना के आश्वासन भी दिए थे और कुछ हद तक जनगणना की गई लेकिन उसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए बीजेपी की सरकार ने भी यह स्वीकार किया कि जनगणना आवश्यक है लेकिन उसके बाद उन्होंने भी उन आंकड़ों को जो कांग्रेस के जमाने में हुए थे,इन्हीं तत्वों के दबाब में उसको सार्वजनिक नहीं किया असल में इस देश के अंदर कुछ पुरातनवादी अपने वर्चस्व के लिए जाति गत गणना का विरोध करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ऐसा करने से नौकरियों में राजनीति की भागीदारी में उनका आज का वर्चस्व समाप्त हो जाएगा अगर हम देश हित में सोचें समाज को उठाने की बात करें जो पिछड़े हैं जो निर्धन है वंचित हैं उनको मुख्यधारा से जोड़ने की बात करें तो जातिगत जनगणना अति आवश्यक है ऐसा हमारा मानना भी है और कहना भी।