डा आंबेडकर का मध्यमार्ग प्रांत के अल्पसंख्यक मामले के निर्णय में योगदान …
न मैं हिंदू हु ना मुसलमान और यह पेशकश मैं किसी का पक्ष लेते हुए नहीं बल्कि समस्या को समझने में लगे एक विद्यार्थी के रूप में कर रहा हूं इससे पहले की मैं अपना प्रस्ताव विस्तार से बताओ मेरा यह सुविचार मत है की की संप्रदायिक विवाद में अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग बड़े ही हल्के-फुल्के ढंग से किया गया है और बदतर बात तो यह है इसका प्रयोग किसी प्रांत अथवा प्रांत के किसी निर्वाचित क्षेत्र के संदर्भ मे बिना नहीं किया जा जबकि राजनीति मैं तो संदर्भ में ही कोई अर्थ रखता है मेरे विचार से कोई समुदाय तभी अल्पसंख्यक होता है और अल्पसंख्यक के रूप में संरक्षण की पात्रता रखता है यदि वह उस प्रांत में अल्पसंख्यक अल्पसंख्यक में है अथवा यदि कानून की दृष्टि से कहें तो निर्वाचन क्षेत्र में वह अल्पसंख्यक है प्रांत अथवा निर्वाचन क्षेत्र को छोड़कर अल्पसंख्यक का कोई महत्व नहीं है
*सुझाव*
आधारभूत बात से शुरू करते हुए जिस पर मैं पूरा जोर देना चाहता हूं मेरा प्रस्ताव संप्रदायिक निर्णय में शामिल दोनों प्रश्नों को अलग-अलग करके देखने का है अर्थात सीट का प्रश्न और निर्वाचन क्षेत्र का प्रश्न यह दोनों प्रश्न अलग-अलग प्रश्न है और इन्हें हल करने के लिए जिन जिन बातों पर विचार करना चाहिए वह भी सर्वदा भिंड है दोनों प्रश्नों को अलग-अलग करते हुए हिंदू और मुसलमानों को मेरी सलाह है कि वह संप्रदाय निर्णय के उस भाग को स्वीकार कर लें जो सीटों की संख्या से संबंधित है इसे चाहे तो अस्थाई तौर पर नहीं बल्कि फिलहाल स्वीकार कर ले और इसका निर्णय भविष्य में कभी किसी और अधिक समानता के सिद्धांत पर छोड़ दें लेकिन जहां तक निर्वाचन क्षेत्र का प्रश्न है हिंदुओं और मुसलमानों की सहमति से इस इस एक आसान से प्रस्ताव के साथ संप्रदायिक निर्णय में संशोधन किया जाए निर्वाचन क्षेत्रों का प्रश्न किसी प्रांत में अथवा प्रांत में किसी विशेष निर्वाचन क्षेत्र में सही मायने में अल्पसंख्यकों का मामला है चुनाव चाहे केंद्रीय प्रतिनिधिमंडल का हो बहुत शिक्षकों को अल्पसंख्यकों के निर्णय का पालन करना चाहिए
अल्पसंखायंक निर्णय करे
यदि अल्पसंख्यक अलग क्षेत्र चाहते हो तो बहुत संख्याओं को इसके विरोध कुछ भी नहीं करना चाहिए इसी प्रकार यदि अल्पसंख्यक संयुक्त निर्वाचन क्षेत्र चाहते हो तो बहुत सैनिकों को उनका निर्णय स्वीकार करने के लिए बाध्य होना चाहिए यदि यह प्रस्ताव उन मामलों में भी लागू किया जा किया जा सकता है जहां अनेक अल्पसंख्यक हैं जहां निर्वाचन क्षेत्र के मुद्दे पर उनके विचार एक नहीं है ऐसे मामलों में जहां अल्पसंख्यक अलग निर्वाचन क्षेत्र चाहते हैं वहां उनके लिए अलग नियमावली होगी जबकि संयुक्त राष्ट्र निर्वाचन क्षेत्र चाहने वाले आंखों की सामान्य नामावली होगी इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता कि इस करार में यह सिद्धांत स्वीकार किया जाए निर्वाचन क्षेत्रों के मामले में निर्णय प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के अल्पसंख्यकों पर निर्भर होगा परंतु यदि ऐसा नहीं किया जा सकता तो यह भी कुछ बेहतर होगा कि इस आधार पर कोई समझौता ही हो जाए कि निर्वाचन क्षेत्रों का निर्णय प्रांत के ऊपर छोड़ दिया जाए।
संपादक –
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