राहुल सांकृत्यायन जयंती (9 अप्रैल 1893)
राहुल सांकृत्यायन (9 अप्रैल 1893) का जन्म गाय पट्टी (काउ बेल्ट) में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. वह वेदांती, आर्य समाजी होते हुए बौद्ध मतावलंबी बने. विद्रोही चेतना, न्यायबोध और जिज्ञासा वृति ने उन्हें पूरी तरह से ब्राह्मणवादी जातिवादी हिन्दू संस्कृति के खिलाफ खड़ा कर दिया. फुले और अम्बेडकर की तरह उन्हें जातिवादी अपमान का सामना तो नहीं करना पड़ा, लेकिन सनातनी हिन्दुओं की लाठियां जरूर खानी पड़ी. राहुल सांकृत्यायन अपने अपार शास्त्र ज्ञान और जीवन अनुभवों के चलते हिन्दुओं को सीधे ललकारते थे. उनकी पतनशीलता और गलाजत को उजागर करते थे. उन्होंने अपनी किताबों में विशेषकर ‘तुम्हारी क्षय’ में हिन्दुओं के समाज, धर्म, भगवान, सदाचार और जात-पांत की क्षय में हिंदुओं के अमानवीय चेहरे को बेनकाब किया है.
अज्ञान का दूसरा नाम ही ईश्वर है। हम अपने अज्ञान को साफ स्वीकार करने में शरमाते हैं, अतः उसके लिए संभ्रांत नाम ‘ईश्वर’ ढूंढ निकाला गया है। ईश्वर-विश्वास का दूसरा कारण मनुष्य की असमर्थता और बेबसी है।लोगों को इस बात का जोर से प्रचार करना चाहिए कि धर्म और ईश्वर गरीबों के सबसे बड़े दुश्मन हैं।
अपनी किताब वोल्गा से गंगा में वह कहते है कि अकल से मारे हुये की जड़ता के पाँच लक्षण होते है; यथा –
1. बुद्धि के ऊपर वेद (पोथी) को रखना
2. संसार का कर्ता ईश्वर को मानना
3. धर्म की इच्छा से ही स्नान करना
4. जन्म जाति का अभिमान करना और
5. पाप नाश के लिए शरीर को कष्ट देना
‘तुम्हारी जात- पांत की क्षय’ में वह लिखते है कि हमारे देश को जिन बातों पर अभिमान है, उनमें जात- पात भी एक है. …पिछले हजार बरस के अपने राजनीतिक इतिहास को यदि हम लें तो मालूम होता है कि भारतीय लोग विदेशियों से जो पददलित हुए, उसका प्रधान कारण जाति-भेद था. जाति-भेद न केवल लोगों को टुकड़ों- टुकड़ों में बांट देता है, बल्कि साथ ही यह सबके मन में ऊंच- नीच का भाव पैदा करता है. ब्राह्मण समझता है कि हम बड़े हैं; राजपूत छोटे हैं. राजपूत समझता है कि हम बड़े हैं; कहार छोटे हैं. कहार समझता है कि हम बड़े हैं; चमार छोटे हैं. चमार किसी और को छोटा समझता है और फिर वह ‘छोटा व्यक्ति’ भी किसी और को छोटा कह ही लेता है.’
राहुल सांकृत्यायन आधुनिकता की परियोजना के सभी तत्वों को अपने में समेटे हुए हैं. वे हिन्दू संस्कृति के मनुष्य विरोधी मूल्यों पर निर्णायक हमला तो करते ही हैं, वह यह भी मानते हैं कि मनुष्य को धर्म की कोई आवश्यकता नहीं हैं. इंसान वैज्ञानिक विचारों के आधार पर खूबसूरत समाज का निर्माण कर सकता है, एक बेहतर जिंदगी जी सकता है. सबसे बड़ी बात यह है कि वह उत्पादन संपत्ति संबंधों में क्रान्तिकारी परिवर्तन के हिमायती हैं. वह इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि भौतिक आधारों में क्रान्तिकारी परिवर्तन किए बिना राजनीतिक, सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाया नहीं जा सकता है और जो परिवर्तन लाया जायेगा, उसे टिकाए रखना मुश्किल होगा.
जाति के संबंध में भी उनकी यही धारणा थी. वे इस यांत्रिक और जड़सूत्रवादी सोच के विरोधी थे कि आधार में परिवर्तन से अपने आप जाति व्यवस्था टूट जाएगी. इसके साथ ही हिन्दी क्षेत्र में वो अकेले व्यक्ति थे जो ब्राह्मण होते हुए भी ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म-संस्कृति पर करारी चोट करते थे और भारत में सामंतवाद की विशिष्ट संरचना जाति को समझते थे और आधार और अधिरचना (जाति) दोनों के खिलाफ एक साथ निर्णायक संघर्ष के हिमायती थे. इस समझ को कायम करने में ब्राह्मण विरोधी बौद्ध धर्म के उनके गहन अध्ययन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उनकी तीन किताबें ‘बौद्ध दर्शन’, ‘दर्शन- दिग्दर्शन’ और ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ इस दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं.