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कबीर को भुनाते कबीरपंथी जयंती विशेष …!!!

कबीर को भुनाते कबीरपंथी

 

सूफी कवि कबीर ने कभी नहीं चाहा था कि उन के नाम पर कोई संप्रदाय शुरू हो लेकिन अपने को कबीरपंथी कहने वाले लोग कबीर के नाम पर मठ, आश्रम और मूर्तियां लगा रहे हैं, पूजापाठ कर रहे हैं. उलटी बहती इस गंगा का पूरा विवरण!

 

अंधविश्वास, जातिपांति और रूढ़ियों पर कड़ा प्रहार करने वाले सूफी कवि कबीर आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने 5-6 सौ साल पहले थे. वजह, ढोंग,पाखंड और धर्म के नाम पर होने वाली दुकानदारी अभी भी बदस्तूर जारी है. कबीर के दोहे बहुत तीखे ढंग से न केवल कुरीतियों की वजह कुरेदते हैं बल्कि इस के पीछे छिपा चेहरा, जो ब्राह्मणवाद का है, को भी उजागर करते हैं.

 

समझ शक के दायरे में

धर्म और जाति के नाम पर शोषित और दबेकुचले लोगों में वैचारिक चेतना फूंकने वाले कबीर को मानने वालों की संख्या घोषित तौर पर 1 करोड़ के लगभग है. जाहिर है, इन में ज्यादातर पढ़ेलिखे समझदार लोग हैं, जो कबीर दर्शन की गहराई से वाकिफ हैं. मगर बीते 5 सालों से इन 1 करोड़ समझदार लोगों की समझ शक के दायरे में है, वजह ये भी इकट्ठा हो कर जगहजगह कबीर की मूर्ति लगा कर पूजापाठ करने लगे हैं. कबीर के नाम पर देश भर में सैकड़ों मठ और आश्रम खुल चुके हैं. कबीर जयंती मनाने के नाम पर चंदा उगाही शुरू हो गई है. इन मठों में पंडेपुजारियों की तरह महंत और मठाधीश विराज गए हैं. कबीर के 80 फीसदी अनुयायी छोटी जातियों के हैं, जिन्हें सवर्ण हमेशा से तिरस्कृत करते रहे हैं.

 

चालाकों की कठपुतली

अपने को कबीरपंथी कहने वाले ये लोग लगता नहीं कि कबीर का अनुसरण करने में सफल हो पाए हैं. उलटे चंद चालाक लोगों के हाथों की कठपुतली बन कर रह गए हैं, जिन का काम कबीर आश्रमों और मठों के नाम पर पैसा कमाना भर है. कबीर ने कभी नहीं चाहा कि उन के नाम पर कोई पंथ या संप्रदाय शुरू हो. वजह, वह जानते थे कि इस की आड़ में गैर ब्राह्मण भी चालाकियां शुरू कर देंगे जो पंडे और पुरोहित करते हैं. कबीरपंथियों की सब से बड़ी परेशानी अपनी पहचान को ले कर नजर आती है. इसलिए ये लोग संगठित हो कर यह जताते रहते हैं कि कबीर दर्शन का वजूद हमारी वजह से है. इन लोगों की मंशा में कोई खोट नजर नहीं आता, जो पंडापुरोहितवाद के प्रबल विरोधी हैं मगर दयनीय बात यह है कि घबराहट में ही सही इन्होंने अपने पैसे और पहुंच के बूते पर खुद कबीरपंथ के महंतपुरोहित खड़े कर लिए हैं, जो अब भस्मासुर बनते जा रहे हैं

 

यहां है खोट्

कबीर जयंती पर शहरशहर में कबीर का पूजन भगवान की तरह होता है. कबीरपंथी इकट्ठा हो कर कबीर चिंतन के प्रचारप्रसार का संकल्प लेते हैं. इस उन्माद में ये लोग भूल जाते हैं कि ये उसी कबीर के गले में माला डाल रहे हैं और आरती उतार रहे हैं, जो यह कहता था कि अगर पत्थर पूजने से भगवान मिलता है तो मैं पहाड़ पूजने को तैयार हूं.

 

कबीर बने ‘उत्पाद’

फिर क्या ये लोग कबीरपंथी कहलाने के हकदार हैं. शायद ही कोई इस से इत्तफाक रखे मगर कबीर के नाम पर अंदर ही अंदर जो हो रहा है उसे देख कर लगता है कि कबीर एक ऐसा ‘उत्पाद’ हो गए हैं, जिस से पैसा भी कमाया जा सकता है और इस के लिए कबीरपंथियों को उन के महंतों और मठाधीशों ने नए सिरे से अंधविश्वासी बना दिया है. कबीरपंथ की 4 प्रमुख शाखाएं हैं, जिन के संस्थापक अलगअलग हैं. इन की अपनी गद्दियां हैं, वारिस हैं, महंत हैं और अलग रीतिरिवाज हैं जिन में तंत्रमंत्र, पूजापाठ, दीक्षा और तमाम प्रचलित पाखंड शामिल हैं. कबीरपंथियों की सब से ज्यादा तादाद छत्तीसगढ़ में है. इस के बाद मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश का नंबर आता है.

 

महंतों की गुलामी

जाहिर है, लाखोंकरोड़ों की जायदाद वाले इन मठों को चलाने के लिए कबीरपंथी तबीयत से दान देते हैं. ये वे लोग हैं जो अपनी मेहनत से पैसा कमा कर समाज में सम्मानजनक स्थान बना पाए हैं मगर इन्हीं मठाधीशों के कारण जातिगत हीनता से नहीं उत्तर पा रहे और इसी कारण से महंतों के गुलाम हो कर रह गए हैं. मिसाल छत्तीसगढ़ की लें, तो रायपुर जिले की दामाखेड़ा नाम की जगह कबीरपंथियों की काशी, काबा कही जा सकती है. खुलेतौर पर भले ही कबीरपंथी इसे तीर्थस्थल न कहें मगर इन की अंधी आस्था इस जगह को ले कर किसी सुबूत की मुहताज नहीं, दामाखेड़ा के अलावा छत्तीसगढ़ में 8 और कबीर आश्रम हैं, जिन में मंदिरों की तरह पूजापाठ होता है, चढ़ावा चढ़ता है और कबीर वाणी गूंजती है. दूसरे धर्मों और संप्रदायों की तरह कबीरपंथ के भी अपने प्रचलित रीतिरिवाज और विधिविधान हैं. कबीर को नास्तिक या रूढ़ि विरोधी मानने वालों को यह जान कर और भी हैरानी हो सकती है कि कबीरपंथी व्रत, उत्सव और दूसरे पाखंडों से मुक्त नहीं हैं. कबीर दीक्षा के घोर विरोधी थे मगर कबीर मठों में दीक्षा देना आम है. इस से चढ़ावे और दक्षिणा की शक्ल में फायदा महंत या गुरु को होता है. यह दीक्षा पूरे तामझाम से संपन्न होती है. फर्क सिर्फ इतना होता है कि यहां पंडा, ब्राह्मण नहीं होता, कबीर का वंशज या पंथ का मुखिया होता है.

 

नाम पर लूटपाट

कबीर दर्शन के प्रचारप्रसार के लिए देश भर के मठों आश्रमों में मेले लगें, यह कतई हर्ज की बात नहीं. हर्ज की बात है इन की आड़ में पैसा बनाना. छत्तीसगढ़ के ही रतनपुर, खरसिया और दामाखेड़ा में अलगअलग तिथियों पर आयोजित मेलों में कबीर के नाम पर जम कर लूटपाट होती है. इस से ज्यादा हैरानी की बात तब नज़र आई, जब जयपुर में गुरुपूर्णिमा पर कबीर पादुका पूजन आयोजित किया गया था. कबीरपंथियों ने गाजेबाजे के साथ शोभायात्रा निकाल कर जता दिया कि वे प्रदर्शन में और पूर्वाग्रह के शिकार हो चुके हैं. इसी दिन जयपुर में आसाराम बापू ने कबीर की तारीफ में कसीदे गढ़ते न जाने किस ग्रंथ के हवाले से यह कहा कि कबीर की नजर में भगवान की निंदा करने वाला घोर पापी होता है. आसाराम की मंशा जाहिर है कबीर को आस्तिक बताते कबीरपंथियों को भड़काने की थी, जिस में वे सफल भी रहे. कबीर के अनुयायियों ने इस प्रवचननुमा वक्तव्य पर जम कर तालियां बजाई और आसाराम की भी जयजयकार कर डाली.

 

*माला से माल*

प्रसिद्ध इतिहासकार और कबीर दर्शन के जानकार लेखक डा. सलिक राम अग्रवाल ने अपनी पुस्तकों में कबीरपंथियों के इन कृत्यों, जो आते पाखंडों के दायरे में हैं, का बेहतर तरीके से खुलासा किया है. इन में से एक है दीक्षा, जिसे बरू और कंठी विधान भी कहा जाता है. इस में महंत के चेले दीक्षाधारी को तुलसी के डंठलों की माला पहना कर दक्षिणा लेते हैं. दीक्षा समारोह भी कबीर जयंती की तरह पूरे धूमधड़ाके से आयोजित किया जाता है. इसी समय नए कबीरपंथी को व्रत व उत्सवों की महत्ता बताई जाती है, जिस से वह पूरी तरह बिछाए जाल में फंस कर जिंदगी भर फड़फड़ाता, कबीर के नाम पर ही सही अंधविश्वासी बन मेहनत की गाढ़ी कमाई आश्रमों में आ कर चढ़ाता रहे.

 

*खतरनाक चौका विधान*

तंत्रमंत्र के घोर विरोधी रहे कबीर के अनुयायी किस हद तक तंत्र और चमत्कारों को मानते हैं, यह कबीरपंथ में प्रचलित चौका विधान से सहज समझा जा सकता है. चौका विधान संपन्न कराने का हक सिर्फ महंतों को है. आमतौर पर कबीरपंथी इसे विवाह जैसे शुभ अवसरों पर कराते हैं. चौका 4 तरह का आनंदी, जन्मोती, एकोत्तरी और चलावा नाम का होता है.

 

नारियल फोड़ना साजिश है

इस मूर्खतापूर्ण तांत्रिक प्रक्रिया में कहा जाता है, नारियल खुद ब खुद फूटता है. विधान की रात कोई 8-9 बजे से महंत और उस के चेले भजनपूजन तेज आवाज में करते हैं जो देर रात 3-4 बजे तक चलता है. इस दौरान एकाएक ही बीचोंबीच रखा नारियल फट जाता है और यजमान की मनोकामना पूर्ण होने यानी काम के सफल होने के संकेत मिले मान लिए जाते हैं. महंत मंडली यह चमत्कार दिखाने के बाद खाना खापी कर और तगड़ी दक्षिणा ले कर चलती बनती है. 21 वीं सदी में ऐसे चमत्कारों का होना आम बात है. भोपाल के राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान के कंप्यूटर विज्ञान के प्राध्यापक राजेश पटेरिया, जो खुद कबीरपंथी हैं, की मानें तो यह एक बहूदा काम है. शायद महंत के चेले मौजूदा लोगों को शोरशराबे से थका कर पहले ही एक साजिश के तहत नारियल फोड़ देते हैं और वाहवाही और पैसा लूट कर ले जाते हैं. मगर कबीरपंथी ऐसा करते और तंत्र को मानते क्यों हैं ? इस का कोई साफ जवाब राजेश के पास नहीं है. कबीर के जन्म से जुड़ी चमत्कारिक प्रचलित बातों पर जरूर उस का नजरिया साफ है कि कबीर को भगवान बताने का यह षड्यंत्र है, जिस से पढ़ेलिखे कबीरपंथी इत्तफाक नहीं रखते. वजह, कबीर का पाखंड और रूढ़ि विरोधी होना है .

क्या कबीरपंथी कबीर को भुला कर गलत रास्ते पर नहीं चल रहे? इस सवाल पर राजेश का कहना है, “सभी कबीरपंथी ऐसे नहीं हैं. असल में कम पढ़ेलिखे कबीरपंथी आम लोगों की तरह चमत्कारी मानसिकता की गिरफ्त में हैं, जिस का लाभ कबीरपंथ के पंडों को मिलता है.”

 

पंथ के जाल में कबीर

राजेश जैसे कबीरपंथियों की बातों से लगता है, कबीरपंथी चाहे पढ़े लिखे अमीर हों या अनपढ़ गरीब कबीर के संदेशों का पालन नहीं कर पा रहे. फिर क्या खा कर ये खुद को गर्व से कबीर का अनुयायी कहते हैं? यह इन का कथित भगवान जाने, जिस की पूजा अधिकांश कबीरपंथी करते हैं. यह काम कबीरपंथियों के अलावा कोई और कर भी नहीं सकता. लगता नहीं. ढोंग, पाखंड, तंत्रमंत्र, अंधविश्वासों और अपने पंथ के तौरतरीकों से पूजापाठ करते इन कबीरपंथियों का कबीर के उसूलों से कोई वास्ता है ऐसा लगता नहीं. ये लोग मठाधीशों, कबीर आश्रमों और महंतों के गुलाम बन कर रह गए हैं. यह कबीर के संघर्ष को, जो मूलतः ब्राह्मणवाद के खिलाफ था, लजाने जैसी बात नहीं तो और क्या है. कबीर के दोहे गाने भर के लिए रह गए हैं. इन पर वाकई अमल तो एक करोड़ कबीरपंथियों में से शायद एकाध ही करता होगा. सवर्णों, खासतौर से ब्राह्मणों के बिछाए धार्मिक पाखंडों के जाल से मुक्त तो कबीरपंथी हो गए मगर फर्क क्या पड़ा, अपने ही पंथ के जाल में फंसे हैं. ऐसे में यह पढ़ेलिखे कबीरपंथियों की जिम्मेदारी बनती है कि वे इस जाल को तोड़ने की पहल करें, नहीं तो कबीर के कबीर होने के माने खत्म हो

 

अंधविश्वास, रूढ़िवाद व तमाम कुरीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद करें और बेहतर समाज बनाने के लिए संघर्ष करें।

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