Homeगुजरात#सावन_सोमवार #श्रावण_मास #कोटेश्वर_मंदिर_लांजी

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#श्रावण_मास
#कोटेश्वर_मंदिर_लांजी

सुबह नींद खुली बिस्तर पर पड़े-पड़े मोबाइल टटोला गया देखा तो 7.30 बज रहे थे और आशीष की कई छूटी हुई कॉल्स मोबाइल में ब्लिंक कर रही थी तब याद आया कि लांजी में कोटेश्वर महादेव मंदिर में ड्यूटी लगी है जल्दी स्नान-ध्यान आदि से निवृत्त हो शक्तिमान के माफिक वर्दी पहनकर बाहर आया तो आशीष व ड्राइवर राकेश अगुवानी में खड़े थे दोनों का अभिवादन स्वीकार चल पड़े दादा कोटेश्वर की सेवा में। (यहां लांजी, बालाघाट में भगवान शंकर को दादा कोटेश्वर कहते हैं)

पैसे डबल होने के क्षेत्र लांजी पहुंचने पर मंदिर की तरफ जाने वाला रास्ता भक्तगणों की छोटी छोटी टोलियां के द्वारा लगाए जा रहे महादेव के जयकारों से गुंजायमान था। पुलिस व्यवस्था पहले से ही चाक चौबंद थी । सबसे पहले मंदिर पहुंचकर भगवान भोलेनाथ का आशीर्वाद लिया और थाना क्षेत्र में शांति और सभी के मंगल की कामना की फिर बाहर आकर ड्यूटी में तैनात हो गए।

बाहर का नज़ारा अद्भुत था, चंदन लगवाने वालों की भारी भीड़ थी, चंदन माथे पर लगाने का अपना अलग पौराणिक व वैज्ञानिक महत्व है पर इस समय कोई रोज चंदन लगाए या न लगाए पर आज के दिन जरूरी हो जाता है नही तो माना नहीं जाएगा कि आप मंदिर गए हो,इसी तरह चंदन लगाने वाले बाबाजी खाली मस्तक ढूंढने की फिराक में रहते हैं,खाली माथा दिखते ही उनकी बांछे खिल उठती हैं, कोई त्रिपुंड तो कोई गोल टीका लगवा रहा था।
कलावा बांधने वाले पंडित जी अलग ही “ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा” पवित्रीकरण मंत्र का जाप कर रक्षा सूत्र बांधे जा रहे थे। लोग चंदन लगवा, कलावा बांध कर सेल्फी पर सेल्फी लिए जा रहे थे, मोबाइल अगर मंदिर के अंदर न ले जाने दिया जाय तो कुछ लोगों की तो आत्मा ही परमात्मा से मिल जाये।

प्रसाद बेचने वाले भी 50,100,150 रुपये के अलग अलग पैकेट बनाकर सुबह से ही भक्तों को महंगा से मँहगा थैला देने की कोशिश में थे जबकि भक्त मात्र 20 रुपये की नारियल में काम चलाना चाहता था। कच्चे नारियल अपनी जवानी पर इतरा रहे थे तथा पके नारियल गंभीर चिंतन में थे, उन्हें मालूम था एक न एक दिन फूटना ही है। प्रसाद की डलिया बार-बार की आवाजाही से थक गई थी वह अपने भाग्य को कोस रही थी कि भगवान के पास बार-बार जाकर भी लौट आती हूँ जैसे प्राणी जीवन व मृत्यु के बंधनों से तब तक मुक्ति नहीं पाता है जब तक भोलेनाथ की कृपा न हो।

आसमान में छाए बादल भी भगवान शंकर के अभिषेक को आतुर थे। मेरे मन में सोचना हुआ ही कि काले मेघों ने अपनी बूंदों से अभिषेक करना शुरू कर दिया। तेज हवाएं लग रहा था जैसे मंदिर की घंटियां बजाने को बेताब हैं, द्वार पर लगें नारियल के पेड़ की पत्तियां विनीत भाव से झुकी जा रही थी और लग रहा था कि साष्टांग दंडवत होने वाली हैं।चंदन, कनेर,आंवला के वृक्ष भी तेज हवाओं से रह रहकर झुक कर सीधे हो रहे थे मानो अपने हाथ से झुककर भगवान का जलाभिषेक कर रहे हों।सफेद चांदनी के फूल दूध बनकर भगवान शंकर की पिंडी को नहलाना चाहते थे।

गेट के एकदम बाहर चप्पलों व जूतों की भरमार थी, रंग बिरंगे, बड़े,मझोले, छोटे,नाटे। कुछ चप्पल एक दूसरे से लिपटे हुए थे जैसे सदियों बाद प्रेमी एक दूसरे से मिले हों।कुछ बड़े पुरुषों के जूते महिलाओं की चप्पलों को दबाए जा रहे थे,कहीं ये अगर इंसानी हरकत होती तो शिकायत में दरोगा जी छेड़खानी का मुकदमा ही ठोंक देते।

कुछ के जूते ऐसे थे जिन्हें किसी के ले जाने का कोई डर नहीं था वो बेफिक्र होकर झटके से उतार कर अंदर जा रहे थे तथा उनके जूते ऐसे जमीन पर औंधे लेटे हुए थे। कुछ महंगे जूतों के स्वामी बहुत एहतियात बरत रहे थे,उतार कर जाते समय मुड़-मुड़ कर जूता ही निहार रहे थे,भगवान जाने मंदिर के अंदर ध्यान भगवान पर लगा या बाहर जूते में ही लगा रहा बाहर आकर अपने जूते सही सलामत पाने पर उनकी खुशी का अंदाजा कोई मापक यंत्र नहीं लगा सकता।

कुछ चप्पल, प्रसाद देने वालों की सुरक्षा में थे और स्टॉल के नीचे से मंद मंद मुस्कुरा कर जेड+सिक्योरिटी के घमंड में फूले नहीं समा रहे थे। कुछ बहुत छोटी चप्पलें रास्ते मे होने से पैर की ठोकरें लगने से अपने जोड़ से बिछड़ कर प्रलाप कर रही थी। कुछ बेचारी मझली चप्पलें नीचे दबी हुई छटपटा रही थी और अपने मालिक के पैरों की प्रतीक्षा में थी। कुछ चमकदार चप्पलें अपने रूप पर इतरा रही थी कि इतने में कीचड़ से सनी सैंडल के मालिक उसी चप्पल पर कीचड़ घिसते हुए उतार कर मंदिर में चला गया मारे बदबू के चमकदार चप्पल के प्राण पखेरू उड़ने ही वाले थे।

एक तरफ दो वृद्ध शायद पति पत्नी हों साथ मे बैठकर लोगों की ओर देख रहे थे लोगों द्वारा कुछ खाने की वस्तु देने पर दोनों हाथ उठाकर आशीष देते थे। कुछ श्रद्धालुओं ने भंडारा खोल रखा था दोपहर होते तक मंदिर में कम भंडारे में अच्छी खासी भीड़ हो गई। पुलिस भी भंडारा जीमने में कहाँ पीछे रहती,भर भरके प्लेट पुलाव व खीर में एक अलग जायका था जो संतुष्टि प्रदान करने वाला था। लोग खाने के बाद डिस्पोजल प्लेट मरोड़ कर यहां वहां फेंक दिए थे जो मुड़ी कुचली पड़े-पड़े मानो कह रही हों कि “अहमियत नहीं समझ पाए हमारी..खैर..अफसोस एक दिन बेशुमार करोगे।”

दोपहर के बाद भंडारे के गंजे भी खाली हो गए थे जो सुबह से करछुल की ठक-ठक व बार बार कोंचने से थक गए थे जो अब माजे जाने का इंतजार कर रहे थे उनकी आंखों का काजल बहकर चारो तरफ फैल रहा था जो अपने मालिक के द्वारा नहलाने का इंतजार कर रहे थे।
अस्थाई अस्पताल भी खुला था लेकिन चिकित्सक महोदय नदारद थे, जो अब खाली होने से विश्राम गृह बन रहा था ।

कुछ देर बाद मंदिर के पीछे की ओर भीड़ भाड़ होने से भ्रमण किया। मंदिर के पीछे की ओर विशाल बरगद का वृक्ष है जिसे पंच वृक्ष कहा जाता है, पीपल,पाकड़,आम व महुआ के वृक्ष इस बरगद के ऊपर लगे हैं। तथा मंदिर के पृष्ठ भाग की दीवाल पर पत्थर पर सुंदर कलाकृतियां बनी है जो बरबस ही खजुराहो की याद दिलाती हैं।
मंदिर के नक्कासीदार गर्भ गृह में शानदार शंकर भगवान की पिंडी विराजमान है इसकी प्राण प्रतिष्ठा किसने की इसकी जानकारी न पुरतत्वविभाग को है न अन्य किसी को स्थानीय बताते हैं की 9 वीं शताब्दी के आसपास हैहय वंशीय राजाओं ने उक्त मंदिर का निर्माण करवाया था।श्रावण मास प्रारंभ होते ही कोटेश्वर महादेव मंदिर में जो कि 108 उपलिंगो में से एक है कांवड़ यात्रा शुरू होती है।

यंहा श्रावण मास में आयोजित कावड यात्रा में लांजी से 40 कि. मी. दूरर स्थित चहेली (सीतापाला) छोटी बाघ नदी के उद्गम से कावडिय़े नंगे पैर जंगल के कठिन रास्ते नदी नाले पार करते हुए कांवड़ लेकर सीतापाला जंगल, टिमकीटोला, रिसेवाड़ा, बम्हनवाड़ा वारी, लोहारा, कालीमाटी, नीमटोला, लांजी को पार करते हुए कोटेश्वर मंदिर पहुँच कर जलाभिषेक करते हैं व भगवान आशुतोष से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
यहाँ मंदिर के सामने श्मशान होने से यह तंत्र मंत्र की साधना के लिए भी खास है।यहां दधीचि ऋषि के तप करने का भी उल्लेख मिलता है, यह भगवान शिव के 108 उपलिंगों में से एक है।श्रद्घालुओं की अटूट आस्था का केन्द्र कोटेश्वर धाम पुरातात्विक धरोहर के रुप में धार्मिक-पौराणिक महत्व का तीर्थ है। यहां मांगी जाने वाली हर मुराद पूरी होने से यह मान्यता का तीर्थ हो गया है।

शाम होते होते इतनी ठंडक हो गई कि चाय का सहारा लेना पड़ा। एस डीओ पी सर,टी आई लांजी सर व जे पी त्रिपाठी जी के सानिध्य में ड्यूटी कब बीत गई पता ही नहीं चला। लांजी ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण जगह है । 36 गढ़ के अलग राज्य बनने के बाद भी उसमे सिर्फ 34 गढ़ ही गए 35 वां गढ़ मंडला व 36 वां गढ़ लांजी ही है जो मध्यप्रदेश में है। पुरातात्विक जगहों को घूमने व प्राकृतिक सौंदर्य को देखने आप यहाँ आ सकते हैं।

शिवपूजन मिश्रा
थाना प्रभारी किरनापुर
जिला बालाघाट (मध्य प्रदेश

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