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‘मां….विधाता की सर्वोत्तम कृति’
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मां शब्द कान में सुनते ही मस्तिष्क माइक्रो सेकण्ड में होंठो को निर्देश देता है और वो अचानक से मुस्कुरा उठते हैं। रिश्तों में सबसे बड़ा-रिश्ता,सबसे पूज्य,सबमें स्वीकार्य। हम सबकी जीवन दायिनी है माँ। देवताओं से भी बढ़कर उसका स्थान है।
विधाता की खूबसूरत रचना है माँ,इसी के उर से पूरी सृष्टि का उद्भव हुआ। विधाता ने मां को बनाते समय शायद अपने सारे गुणों का समावेश कर दिया होगा, इसीलिए वो विधाता की सर्वोत्तम कृति है।
विवाहोपरांत एक स्त्री के लिए सुखद एहसास होता है माँ बनना, लेकिन जितना कहने या सुनने में आसान लगता है उतना आसान नहीं है एक मां का जीवन। 9 महीनों का वो कष्टप्रद समय जिसमें पेट में बच्चे को मां पालती है खानपान का कितना ध्यान रखती है।जिसमें सोते जागते कितनी फिक्र करनी पड़ती है।सुंदर शरीर को बेढंगा करना पड़ता है। उसके बाद संसार की सबसे कठिन वेदना (प्रसव पीड़ा),जन्म के बाद कई साल तक अवैतनिक सफाईकर्मी।
9 महीनों की बात क्या करें हम सब आधे किलो का एक पत्थर 5 घंटे से ज्यादा हाथ में पकड़ के नहीं रख सकते हैं।
मां एक बेहतरीन रसोइया, सर्फ एक्सेल से भी अच्छी धुलाई करने वाली, तरह-तरह के अचार व बरी रखने में विश्वकर्मा जी से भी तेज। कांक्रीट की दीवालों को अपने प्यार से सजाकर व संवारकर उसे एक खूबसूरत घर बनाती है।
उसका कोमल, प्यार भरा स्पर्श सारी परेशानियों का रामबाण इलाज है। अनेकानेक परेशानियां, अनेक कष्टों को सहकर भी अपने पुत्र का बाल बांका नहीं होने देने की क्षमता रखती है। रंग रूप में उसका बच्चा चाहे जैसा हो वो पूरी दुनिया में उसके लिए सबसे अच्छा है। मजाल क्या की कोई उसके सामने उसके बच्चे की बुराई कर दे। बुराई करने वाले कि सात पुश्तें याद रखेंगी।
मां एक मिनट भी अपने बच्चे को अपने से दूर नहीं रखना चाहती,जब विद्यालय जाने का समय होता है तब वह बहुत चिंतित रहती है पर उसके भविष्य को देख के चुप रह जाती है।बच्चे का पहला विद्यालय वही है अच्छे संस्कार देती है एक अच्छा इंसान बनाती है।
सरदर्द करने पर अगर उसने सर दबा के बोल दिया कि कुछ नहीं है ठीक हो जाएगा तो उसके हाथ में जादू रहता है दर्द गायब और निद्रलोक में विचरण शुरू। अपने बच्चे के लिए मां जीवन भर त्याग करती है। अपने पति से उसके लिए न जाने कितना सुनती है, सहती है लेकिन उसकी सुख-सुविधा का पूरा ख्याल रखती है इसीलिए त्याग की प्रतिमूर्ति कही जाती है।
जब बेटे को कहीं बाहर जाना होता है तो लगता है सारा घर उसके साथ भेज देगी चाहे बैग भले मगरगोह होकर फट जाए। जाते समय कितना भी समझाओ की इस बार नहीं रोना है लेकिन जरूर रो देगी उसे भरोसा नहीं रहता कि उसके लाल का बाहर ध्यान कौन रखेगा।
शादी के बाद अपने अधिकारों में स्वतः कमी कर देती है, बहू को आगे करती है, उसे दुःख तो होता है लेकिन सिर्फ बेटे के भले के लिए वो दिल पे पत्थर रखती है। पूरा जीवन त्याग ही त्याग करने के बाद जब उसे पता चलता है कि उसके बेटे व बहू उसके पति की मृत्यु के बाद उसे रखना नहीं चाहते,वृद्धाश्रम भेजना चाहते है तो वह विरोध नहीं करती चुपचाप बिना कुछ लिए चली जाती है पर अपने बेटे को कभी श्राप नहीं देती ऐसी होती है माँ। लेकिन ऐसा अपराध, ऐसा पाप करने वाले बेटों को कभी जीवन-मृत्यु के बंधनों से मुक्ति नहीं मिलेगी।
दुर्गा सप्तशती के प्रार्थना श्लोक में कहा गया है कुपुत्रो जायेत, क्वचिदपि कुमाता न भवति। अर्थात पुत्र भले कुपुत्र हो जाये माता कभी कुमाता नहीं होती। मां का ऋण कभी कोई नहीं उतार सकता।
कितने खुशनसीब हैं वो जिनकी मां के आंचल की छाया उनके ऊपर है। अगर स्वर्ग में फ़ोन होता तो ऐसा कोई दिन ऐसा कोई पहर न रहता जब अम्मा तुम मुझे याद न करती। मां तुम हमेशा याद आती हो। तुम्हारे जैसे कोई फिक्र नहीं करता। कहने को पूरी दुनिया अपनी है लेकिन तुमसा कोई नहीं ।
मेरे हर गलत सही में मेरे आगे खड़ी,मेरी रक्षा कवच मेरी ढाल बनके। अम्मा अब कब आओगी किसी ने जरूर रोका होगा नहीं तुम रुकती नहीं,जल्दी से आ ही जाती। तुम मुझे जरूर देखती होगी, खूब रोना चाहता हूँ तुमसे गले लगके। कभी-कभी ऐसा लगता है कि दुनिया में कोई अपना है ही नहीं।
मैं तुमसे अपने माथे में काला टीका लगवाना चाहता हूँ,मैं फिर से तुम्हारे सामने घुटनों के बल चलना चाहता हूँ।मैं फिर से तुम्हारे अँचरा में बंध जाना चाहता हूँ।तुम्हारी लोरी सुनना चाहता हूँ, मां मैं तुम्हारे पास आना चाहता हूँ।
शिवपूजन मिश्रा
चौकी प्रभारी उकवा
जिला बालाघाट (मध्य प्रदेश)
समाचार संकलन प्रफुल्ल कुमार चित्रीव