Phule Movie Review: फिल्म ‘फुले’ 19वीं सदी के भारत की एक ऐसी सच्ची कहानी है जो हमें झकझोर देती है। यह कहानी है ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले की जिन्होंने उस दौर में लड़कियों की शिक्षा विधवाओं की स्थिति और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष शुरू किया जब समाज पूरी तरह से रूढ़ियों से जकड़ा हुआ था। फिल्म की शुरुआत 1897 में पुणे में फैली प्लेग से होती है जहां सावित्रीबाई की मृत्यु हो जाती है और यहीं से फिल्म हमें अतीत की ओर ले जाती है।
शिक्षा को बनाया बदलाव का हथियार
कहानी फ्लैशबैक में जाती है और दिखाती है कि किस तरह ज्योतिबा फुले ने एक छोटे से गांव में जातिगत भेदभाव और अज्ञानता के खिलाफ अपनी लड़ाई शुरू की। उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढ़ाना शुरू किया और फिर दलित बच्चों को भी शिक्षा देने लगे। यह काम आसान नहीं था क्योंकि समाज के उच्च जाति के ब्राह्मण उनके खिलाफ हो गए थे और उनके पिता गोविंदराव ने भी उनका साथ नहीं दिया।
विरोध के बीच बढ़ता आंदोलन
ज्योतिबा ने हार नहीं मानी और अपने घर से निकलकर उस्मान शेख और फातिमा की मदद से यह मिशन जारी रखा। वे केवल शिक्षा तक सीमित नहीं रहे बल्कि विधवाओं के पुनर्वास का कार्य भी शुरू किया। ब्रिटिश सरकार ने उनकी प्रशंसा तो की लेकिन आर्थिक सहायता नहीं दी। ज्योतिबा ने अपनी पुश्तैनी जमीन बेचकर इस सामाजिक आंदोलन को जिंदा रखा।
कलाकारों की दमदार अदाकारी
प्रतीक गांधी ने ज्योतिबा के किरदार में एक शांत लेकिन असरदार भूमिका निभाई है। उन्होंने अपने अभिनय से दर्शकों को भीतर तक प्रभावित किया है। विनय पाठक ने पिता के सख्त रोल को मजबूती से निभाया है जबकि जॉय सेनगुप्ता ने ऊंची जाति के प्रतिद्वंद्वी की भूमिका में सच्चाई भरी है। लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं पत्रलेखा जिनकी सावित्रीबाई के रूप में प्रस्तुति बेहद सजीव और शक्तिशाली है।
संवेदनशीलता और सच्चाई से बुनी कहानी
फिल्म की सबसे बड़ी ताकत इसका सादगी से भरा और आत्मिक अंदाज है। न कोई नाटकीयता है न ही ज़रूरत से ज्यादा भावनात्मक लहरें। जैसे ब्राह्मणों द्वारा ज्योतिबा की छाया से बचना या अदालत में ज्योतिबा द्वारा वकील से नाई को लेकर किया गया सवाल इन दृश्यों में एक गहरी बात बिना चिल्लाए कह दी जाती है। यह फिल्म न केवल हमें फुले दंपति के योगदान से परिचित कराती है बल्कि यह भी बताती है कि बदलाव लाना कितना मुश्किल लेकिन जरूरी होता है।