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परिचय – तारा …. नाम तो सुना ही होगा ।

परिचय – तारा 

आपको वारासिवनी में सब ‘तारा’ नाम से जानते थे। मैं मगर आपको सिर्फ ‘तारा’ नहीं ‘चंद्र’ एवं आप में ‘राम’ भगवान तयपर श्रद्धा वाले, आपके पूरे नाम से परिचित था। वास्तव में आपका पूरा नाम – ताराचंद्र परस‘राम’ था।

मुझे पता नहीं कि – क्यों और क्या होतीं हैं वे परिस्थितियां, जिनमें आप सरीखे लोग अपने पिता का परिवार में नहीं रहते हैं।

आपका पूरा नाम मैं कैसे जानता था, यह बात मैं इस परिचय आलेख में, बाद में लिखूँगा। पहले मैं सविनय, सादर – आपके व्यक्तित्व पर प्रकाश डालूँगा।

हम बहुत छोटे थे तब से आपको विभिन्न त्योहारों में आपको अपने साथियों के साथ तालियाँ बजा बजा कर सब दुकानदारों से, सभी मुख्य त्योहार की दक्षिणा माँगते देखा करते थे।

जिस भी दुकान से आपको यह शगुन/दक्षिणा देर से या आपकी अपेक्षा से कम मिलती वहाँ आप सहित आपकी टोली, ढ़ोलक की थाप एवं तालियाँ बजाते हुए, नाच गाना शुरू कर देती थी। तब आप वारासिवनी के सभी हिजड़ाओं के प्रधान थे।

लिखना शायद आपकी प्रतिष्ठा में उचित ना लगे, मगर यह तथ्य था जिसे अपने बालपनें में हमने अनुभव किया करते थे। वह यह कि आपका स्वर ना तो नारी स्वर जैसा मधुर था और ना ही पुरुष जैसा ओजस्वी था।

आप अधिकतर इन दोनों से भिन्न और पंचम स्वर में ही बात करते या गाया करते थे। तब आपका यह सुर कम से कम मुझे कभी कर्ण प्रिय नहीं लगता था।

आप अधिकतर साड़ी पहना करते थे। कुछ अवसरों पर आपको अवश्य ही, हम पैजामा कमीज पहने हुए भी देखते थे।

ईश्वर का यह कौनसा न्याय था कि उन्होंने आपको इस रूप में धरती पर भेजा था, यह मुझे ना पहले कभी समझ आया था, ना ही मैं आज तक इस बात को समझ पाया हूँ। मगर मुझे इस बात की प्रसन्नता होती है कि मानव समाज ने अवश्य ही कुछ सीमा तक आप (और आप जैसों) पर न्याय की परंपरा बनाई हुई थी/है।

इसी परंपरा के अंतर्गत हर विवाह एवं बच्चे के जन्म के अवसर पर, वारासिवनी में आपका नाच गाना एवं उसके बाद, आपकी टोली को दक्षिणा दिया जाना, शुभ शगुन माना जाता था/है।

मैंने अपने बाद के जीवन में अनेक स्थानों के और भी किन्नरों को यही करते देखा था/है मगर वारासिवनी में आपकी टोली मुझे कुछ निराली लगती थी। जी हाँ वह निराली बात यह थी कि दक्षिणा को लेकर, आपकी कोई अधिक जिद नहीं होती थी। आपको जो खुशी से दिया जाता वह देने वाले की परिस्थिति के अनुसार आपको संतुष्ट कर दिया करता था।

यद्यपि जब कोई धन्ना सेठ आपसे मजाक करने या आपका नृत्य एवं गायन अधिक सुनने के लिए प्रारंभ में कम (थोड़ी सी) दक्षिणा देता तो आप उस पर संतुष्ट नहीं होते थे। आपका गाना बजाना एवं नाचना तब तक जारी रहता जब तक आप उन सेठ-साहूकारों से उनकी आर्थिक स्थिति के अनुरूप का दान प्राप्त नहीं कर लेते थे।

थोड़ा अप्रिय होता है यह अनुभव करना कि आपका या आपकी टोली के किसी भी सदस्य का, कोई परिवार नहीं होता था/है। शायद आप सब अलग अलग भी रहते थे मगर आप सब मिलकर ही एक परिवार हो जाते थे।

मुझे स्मरण है, वारासिवनी एक छोटा ही नगर है, उसमें उस समय आपके जैसे और आपकी टोली के 4-5 ही सदस्य होते थे।

जब आप इस तरह से अकेले थे और समाज की मान्यता में आपको दक्षिणा एक शगुन जैसा माना जाता था/है, तब आपकी कमाई एक व्यक्ति के हिसाब से अधिक ही हुआ करती थी। इस अधिक कमा लिए गए रुपयों को आप सोना, चाँदी, पुखराज एवं नीलम आदि रत्नाभूषण के रूप में परिणत कर लेते थे। आपके इन ही शौक के कारण, आप प्रत्यक्ष/परोक्ष मुझे (हमें) संबल देने वाले बन जाते थे। जी हाँ रत्नाभूषण क्रय करने, आप हमारे सराफा प्रतिष्ठान पर ही आया करते थे।

हम बच्चे छोटे थे, स्कूल के आगे पीछे के समय और छुट्टी के दिनों में, प्रायः हम अपनी शॉप पर आ जाया करते थे (हमारा घर एवं दुकान पास पास ही थे)।

मैं बालक ही था, तब से आप पंचम स्वर में बात करते हुए और ताली बजाते हुए हमारी शॉप में आते थे। आपको देखकर मैं डर जाया करता था। मुझे तब यह बात भी अखरा करती थी कि जब हमारे बाबू जी को सब आदर से भाऊ या मदन भाऊ कहते थे, तब आप कई बार किसी सौदे की कीमत कम या अधिक करवाने के लिए बाबूजी को ऊँची एवं दबाव देने की आवाज में कहते – नहीं नहीं ‘मदन सेठ’ मुझे इतने पैसे में चीज चाहिए या इतने पैसे चाहिए हैं।

आप दोनों तरह के सौदे के लिए हमारी शॉप पर आया करते थे। कभी रत्नाभूषण क्रय करने या कभी पुराना या टूट फूट गया आभूषण बेचने के लिए।

कभी कभी आपका अपने जेवर बेचने का अभिप्राय, उससे प्राप्त पैसों से बकरी खरीदने का भी होता था। आप बकरी का दूध पीते थे और शायद बेचा भी करते थे।

मैं और हम भाई-बहन आपको देख कर डर रहे होते थे, उसी समय हमारे बाबू जी खुश होते थे। जी हाँ – आप तब हमारी शॉप पर वह ग्राहक होते थे जिनसे हुए सौदों के माध्यम से हमें आमदनी होती थी।

बाबू जी को आप मदन सेठ भी कहते, कभी उनके सम्मान अभाव के बोल भी कह देते थे। तब भी बाबू जी इस बात का बुरा नहीं माना करते थे। आप जिस कीमत की जिद करते, उस अनुरूप कभी बाबू जी कम/अधिक भी करते, कभी गुंजाईश नहीं होती तो नहीं भी करते थे। तब भी आप हर ऐसा सौदा हमारी शॉप पर ही करते थे।

सराफा बाजार में आसपास के सभी व्यापारी यह जानते थे कि ‘तारा तो हमारी दुकान का ग्राहक है’। तब भी जिस किसी को, आपके मुख से गाली सुनने की इच्छा होती वह आपको छेड़ते हुए कहता –

तारा आज, मदन सेठ को छोड़ो हमारी दुकान पर आओ, हम आपको बहुत ही किफायती कीमत लगाएंगे।

आप तो जैसे हमारी दुकान की कसम खाकर ही आते थे। आपको उनकी बातों का प्रभाव नहीं पड़ता था। ऐसे में जब कभी कोई व्यापारी अधिक ही आपको छेड़ता तब आपके मुखाग्र से पंचम स्वर में, अपमानित करने वाले शब्द ही निकलते थे। आपकी गाली भी अजीब होतीं थीं। आप रुष्ट होकर कहते थे – बकरिया, भाड़या तू तो मेरे को ठग लेगा। मदन भाऊ ही मेरे को चाहता है।

अब तक छेड़ने वाले व्यापारी की इच्छा पूर्ति हो जाया करती थी। वह हँसने लगता और आप हमारी दुकान पर सौदा करने बैठ जाया करते थे।

मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो मैंने बाबूजी से कहा – तारा कभी कभी अपमानित करने वाले शब्द कहते हैं, आप उन्हें दुकान पर क्यों आने देते हो?

बाबू जी मुझे समझाते – राजू, यह तो तारा की भाषा और समझ है मगर वह हमको चाहता है। वह हम पर विश्वास करता है। हमारी दुकान में इतनी खरीदी बिक्री करता है, उससे हमारी अच्छी आय होती है। दुकान पर किसी ग्राहक को आने से कभी रोका नहीं जाता है, हमेशा उसका स्वागत किया जाता है।

आप सौदा ले बेच चुकते तो बाबूजी से कहते – मदन सेठ मेरे से इतना कमाया है, चल अब मेरे को चाय पान पिला-खिला।

तब बाबू जी, महेश (शॉप असिस्टेंट) को पास की अग्रवाल होटल से समोसा या भजिए – चाय और बाबूलाल जी के यहाँ से जर्दे वाला पान लाने कहते। महेश के लाए जाने के बाद, आप बड़ी तसल्ली से इनका सेवन करते और फिर चले जाते थे।

पड़ोस के दुकानदार में से फिर कोई आपको छेड़ता – तारा, मदन भाऊ ने तो तेरे को ठग लिया है।

अब आप फिर उन्हीं अपशब्दों के प्रयोग करते हुए आगे कहते – चल तू तो झूठा है, मेरे को परेशान किया करता है। देख मदन सेठ ने मेरे को नाश्ता करवाया है।

इस तरह हमें आय/लाभ मिला करते और दुकानदारों को आपकी छेड़छाड़ से मनोरंजन मिलता था।

जब मैं कक्षा 6-7 में आ गया तब दुकान पर यदि मैं होता तो हमारे दादा जी, कैश-मेमो बनाने के लिए मुझसे कहते थे। ऐसे ही समय मुझे आपका पूरा नाम ज्ञात हुआ था।

दादा जी ग्राहक के नाम के स्थान पर आपका नाम, ‘तारा’’चंद्र’ परस’राम’ हिजड़ा लिखने कहते थे। आप पढ़े लिखे नहीं थे आप अँगूठा लगाया करते थे।

(‘हिजड़ा’ होने का अर्थ क्या है, तब मैं नहीं जानता था।)

ऐसे में हमारे बाबू जी की जिम्मेदारी अधिक हो जाती थी कि हर सौदे में आपको अच्छी से अच्छी गुणवत्ता का सामान दिया और उसकी कीमत बिलकुल ही उचित लगाई जाए।

आप हर तरह के आभूषण लेते थे। चाँदी की पाजेब सबसे अधिक वजनी आप ही खरीदा करते थे।

काल परिवर्तन हुआ था। मैं अब दुकान पर कभी नहीं होता था। एक बार बाबू जी जबलपुर आए तो मैंने आपकी याद करते हुए, बाबू जी से पूछा – बाबूजी, तारा अभी भी दुकान पर आते हैं?

यह बात शायद 2006-07 की है। बाबू जी ने दुखी स्वर में कहा – 8 महीने हुए तारा नहीं रहा। उसका करने वाला कोई नहीं था। उसकी तबियत बिगड़ने का पता चला तो मैंने, उसको बालाघाट ले जाकर अस्पताल में भर्ती कराया था। उसके उपचार पर कुछ मैंने भी खर्च किया था मगर अस्पताल जाने के बाद 15 दिन में तारा नहीं रहा था। मैंने ही उसके शव को बालाघाट से वारासिवनी लाने की व्यवस्था करवाई थी।

मैंने पूछा – तारा के खुद के पास बहुत पैसा था, उसके उपचार आदि पर आपको क्यों खर्च करना पड़ा?

बाबू जी ने कहा – पता नहीं अपना जेवर पैसा उसने कहाँ कर दिया था। तारा के मरते समय उसके पास अधिक कुछ भी नहीं था।

निश्चित ही ‘आप’ अपने साथ जेवर पैसा कुछ नहीं लेकर गए थे। यह सब इसी दुनिया की माया थी आप यहीं छोड़कर गए थे। आप पूरे जीवन वारासिवनी निवासियों की समृद्धि सुख की कामनाएं और प्रार्थना करते रहे थे। शायद जाते हुए भी आपके मन में हमारे वारासिवनी के लिए यही प्यार और यही शुभकामनाएं रहीं होंगी।

शुभकामना या हमारे लिए प्रार्थना के कुछ बोल जब भी हमारा कोई हितैषी कहता है, उससे हमें कुछ और मिले या ना मिले मगर ये कामनाएं और ये शब्द हम सभी को आत्मविश्वास अवश्य प्रदान करते हैं। आपकी शुभकामानाएं हमारे परिवार के सभी सदस्य को यह आत्मविश्वास देते थे।

साथ ही आप हमारे दुकान के ग्राहक भी थे। आप सब ग्राहक से होते सौदों की आय से ही हमारा लालन पालन हुआ था। हम सब आपको अब भी कृतज्ञ भाव से स्मरण करते हैं।

हम आपको शत शत नमन करते हैं।

दुर्भाग्य से आप शारीरिक रूप से नपुंसक थे। फिर भी उन अनेकों व्यक्तियों से श्रेष्ठ थे, जो मानसिक एवं वैचारिक रूप से नपुंसक होते हैं। जो देश और समाज में नकारात्मक एवं नफरत को बढ़ावा देते हैं। जिनकी कामनाओं में वह नपुंसकता है जो देश और समाज को विघटित करने के लिए, मासूमों को उकसाती है। ये ऐसे लोग होते हैं जो खुद को एवं अपने परिवारों को तो सुरक्षित रखते हैं मगर भड़काऊ बातें कह कर आतंक और दंगों के लिए गरीब युवकों को जान की बाजी लगाने को दुष्प्रेरित करते हुए कई अकाल मौतों के लिए जिम्मेदार होते हैं।

आप बच्चों के जन्म लेने पर उन्हीं ज़िंदगी की दुआएं देने पहुँचते थे। जबकि ये मानसिक नपुंसक लोग पले बड़े हुए बच्चों को अकाल मौत के माध्यम से अपनी कौमी महत्वकांक्षाओं को पूरा करने की कोशिश करते हैं।

वास्तव में आप थोड़ा सा ले कर बदले में सबकी दीर्घ जीवन एवं समृद्धि की कामना करते थे। आप आत्मिक रूप से श्रेष्ठ थे। मुझे लगता है आप जितना श्रेष्ठ मैं खुद नहीं हूँ।

​​साथ का ये फोटो आपका नहीं मगर आप जैसे का है –

श्री राजेश चन्द्रयानी मदनलाल जैन की कलम से

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